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स॒त्रा त्वं पु॑रुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ तोशसे । नान्य इन्द्रा॒त्कर॑णं॒ भूय॑ इन्वति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

satrā tvam puruṣṭutam̐ eko vṛtrāṇi tośase | nānya indrāt karaṇam bhūya invati ||

पद पाठ

स॒त्रा । त्वम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एकः॑ । वृ॒त्राणि॑ । तोशसे । न । अ॒न्यः । इन्द्रा॑त् । कर॑णम् । भूयः॑ । इ॒न्व॒ति॒ ॥ ८.१५.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:11 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

एक इन्द्र ही पूज्य है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे सर्वस्तुत ! हे बहुपूज्य हे स्तवनीयतम देव ! (त्वम्+एकः) तू एक ही (सत्रा) सर्वोपकरण सर्वसाधनसहित (वृत्राणि) संसारोत्थित सर्व विघ्नों को (तोशसे) विनष्ट करता है। हे मनुष्यों ! (इन्द्रात्) उस परमेश्वर को छोड़ (अन्यः) अन्य (न) कोई नहीं (भूयः) उतना अधिक (करणम्) कार्य (इन्वति) कर सकता है। क्योंकि वह सर्वसाधनसम्पन्न होने के कारण सब कुछ कर सकता है, इसी हेतु वह शक्र नाम से वारंवार पुकारा गया है ॥११॥
भावार्थभाषाः - वह एक ही सर्व विघ्नों को विनष्ट करता है। वह सब कुछ कर सकता है, यह जान उसकी उपासना करे ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे सबके स्तुत्यर्ह ! (त्वम्, एकः) आप अकेले ही (वृत्राणि) सब विघ्नों को (सत्रा) युगपत् ही (तोशसे) नष्ट करते हैं (इन्द्रात्, अन्यः) इन्द्र=परमात्मा से अन्य कोई भी (भूयः, कर्म) अधिक कर्म को (न, इन्वति) नहीं प्राप्त कर सकता ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे सबके स्तुतियोग्य परमात्मन् ! एकमात्र आप ही सब विघ्नों तथा उपद्रवों को नष्ट करके प्राणियों को सुख देनेवाले हैं। आपसे भिन्न अन्य कोई भी कर्मों में आधिक्य प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् सब कर्मों में आप ही का आधिपत्य पाया जाता है ॥११॥
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शिव शंकर शर्मा

एक इन्द्र एव पूज्योऽस्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष्टुत=पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः स्तुत=प्रार्थित ! यद्वा। पुरु यथा तथा पूज्य ! त्वमेक एव। असहाय एव। सत्रा=सहोपकरणैः। वृत्राणि=संसारोद्भूतानि विघ्नजातानि अनावृष्टिमहामारीप्रभृतीनि। तोशसे=विनाशयसि। वधार्थस्तोशतिः। अपि च। हे मनुष्याः ! इन्द्रात् परमेश्वरादन्यो न कश्चित्। भूयोऽधिकम्। करणम्=साधनम्। इन्वति=प्राप्नोति। यतः स सर्वसाधनसम्पन्नोऽस्ति। अतः स सर्वं कर्त्तुं शक्नोतीति शक्रपदवाच्यो भवति ॥११॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे सर्वैः स्तुत ! (त्वम्, एकः) त्वम्, एक एव (सत्रा) सहैव (वृत्राणि, तोशसे) विघ्नानि हिनस्सि (इन्द्रात्, अन्यः) परमात्मनोऽन्यः (भूयः, करणम्) अधिकं कर्म (न, इन्वति) न प्राप्नोति ॥११॥